जागृत भारत | प्रयागराज(Prayagraj): इलाहाबाद हाईकोर्ट ने ‘सर तन से जुदा’ नारे को लेकर बेहद सख्त टिप्पणी की है। कोर्ट ने साफ कहा है कि यह नारा न सिर्फ भारत की कानून व्यवस्था, संप्रभुता और अखंडता को चुनौती देता है, बल्कि यह लोगों को सशस्त्र विद्रोह के लिए उकसाने वाला भी है। इसी आधार पर कोर्ट ने इस नारे के आरोपी को जमानत देने से इनकार कर दिया।
हाईकोर्ट ने जमानत याचिका खारिज की
न्यायमूर्ति अरुण कुमार सिंह देशवाल की एकल पीठ ने आरोपी मोहम्मद रिहान की जमानत अर्जी खारिज करते हुए कहा कि “गुस्ताख-ए-नबी की एक सजा, सर तन से जुदा” जैसे नारे भारतीय कानूनी व्यवस्था के मूल ढांचे के खिलाफ हैं। कोर्ट ने कहा कि इस तरह के नारे भीड़ को हिंसा और हथियारबंद विद्रोह के लिए भड़काते हैं।
बरेली हिंसा से जुड़ा है मामला
यह मामला सितंबर 2025 में बरेली में हुई हिंसा से जुड़ा है, जो ‘आई लव मोहम्मद’ पोस्टरों को लेकर हुए विवाद के बाद भड़क उठी थी। इस हिंसा में पुलिस और राहगीरों पर पथराव किया गया था। जांच में सामने आया कि हिंसा से पहले सरकार विरोधी नारे लगाए गए और पैगंबर के अपमान पर सिर कलम करने की बात कहने वाले नारे भी लगाए गए।
यूपी पुलिस के मुताबिक, इस हिंसा के मुख्य आरोपी राजनीतिक संगठन इत्तेहाद-ए-मिल्लत काउंसिल के अध्यक्ष मौलाना तौकीर रजा हैं, जिन्होंने कथित तौर पर भीड़ को उकसाया।
धार्मिक नारों और भड़काऊ नारों में फर्क
कोर्ट ने स्पष्ट किया कि “नारा-ए-तकबीर”, “अल्लाहु अकबर”, “जो बोले सो निहाल, सत श्री अकाल”, “जय श्री राम” या “हर हर महादेव” जैसे धार्मिक नारे अपने आप में अपराध नहीं हैं, जब तक कि उनका इस्तेमाल किसी अन्य धर्म के लोगों को डराने या धमकाने के इरादे से न किया जाए।
लेकिन कोर्ट ने कहा कि किसी भी धर्म के नाम पर ऐसा नारा देना, जिसमें किसी को मौत की सजा देने की बात हो, वह सीधे तौर पर भारत की संप्रभुता, अखंडता और कानून व्यवस्था को चुनौती देता है।
संविधान और कानून के खिलाफ
हाईकोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि भारतीय दंड संहिता या अन्य आपराधिक कानूनों में तय सजा के अलावा भीड़ द्वारा किसी को मौत की सजा देने का ऐलान करना न केवल संविधान के उद्देश्यों के खिलाफ है, बल्कि यह भारतीय न्याय प्रणाली की वैध सत्ता को भी चुनौती देता है, जो लोकतांत्रिक मूल्यों पर आधारित है।
इस्लाम के मूल सिद्धांतों में भी नहीं है यह नारा
कोर्ट ने यह भी टिप्पणी की कि ‘सर तन से जुदा’ नारे का न तो कुरान में और न ही इस्लाम के किसी अन्य धार्मिक ग्रंथ में कोई उल्लेख मिलता है। इसके बावजूद, कई लोग इसके वास्तविक अर्थ और प्रभाव को समझे बिना इसका इस्तेमाल कर रहे हैं।
कोर्ट ने कहा कि इतिहास में ऐसे कई उदाहरण हैं, जहां पैगंबर मोहम्मद ने अपमान सहने के बावजूद दया और क्षमा का मार्ग अपनाया और कभी किसी के सिर कलम करने की इच्छा व्यक्त नहीं की।
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