नई दिल्ली, 10 अक्टूबर 2025: सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को केंद्र सरकार और चुनाव आयोग से उन प्रावधानों पर जवाब मांगा है, जिनके तहत अंडरट्रायल (विचाराधीन) और अपराध सिद्ध होने से पहले हिरासत में रखे गए कैदियों को मतदान के अधिकार से पूरी तरह वंचित किया गया है।
यह मामला मुख्य न्यायाधीश बी. आर. गवई और न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन की पीठ ने सुना। यह याचिका अधिवक्ता सुनीता शर्मा द्वारा दायर की गई है, जिसमें अदालत से अनुरोध किया गया है कि वह कैदियों पर लागू “संपूर्ण प्रतिबंध (blanket disqualification)” की समीक्षा करे और इसके बजाय सीमित व व्यक्तिगत रूप से निर्धारित प्रतिबंध प्रणाली लागू करने का ढांचा तैयार करे।
🔹 याचिका में क्या कहा गया
याचिका में तर्क दिया गया है कि वर्तमान में भारत की जेलों में लगभग 4.5 लाख कैदी बंद हैं, जिनमें से ज्यादातर अंडरट्रायल (विचाराधीन) हैं। इनमें से किसी को भी मतदान की अनुमति नहीं है, जबकि उनमें से अधिकांश को अभी अपराधी घोषित नहीं किया गया है।
अधिवक्ता प्रशांत भूषण, जो याचिकाकर्ता की ओर से पेश हुए, ने कहा,
“यह संभव और संवैधानिक रूप से आवश्यक है कि जेलों में बंद लोगों को मतदान का अधिकार दिया जाए। देशभर में लगभग 1,350 जेलें हैं — इनमें स्थानीय मतदान केंद्र बनाए जा सकते हैं या डाक मतपत्र (postal ballots) के माध्यम से वोट डलवाया जा सकता है।”
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🔹 कानून की मौजूदा स्थिति
वर्तमान में जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 (Representation of the People Act) की धारा 62(5) के तहत, कोई भी व्यक्ति जो जेल में सजा काट रहा है या न्यायिक/पुलिस हिरासत में है, मतदान नहीं कर सकता। यह प्रतिबंध इस बात से अप्रभावित रहता है कि व्यक्ति दोषी सिद्ध हुआ है या नहीं।
हालांकि, अधिनियम की धारा 16(1)(c) के तहत, मतदाता सूची से अयोग्यता केवल दो आधारों पर होती है —
- भ्रष्टाचार या चुनाव संबंधी अपराध में दोषसिद्धि, 
- मानसिक अस्वस्थता या निवास न करने की स्थिति। 
इस तरह, अंडरट्रायल कैदियों को मतदान से वंचित करना कानूनी और संवैधानिक दोनों दृष्टियों से विरोधाभासी माना जा रहा है।
🔹 “अपराध सिद्ध न होने पर भी अधिकार छीनना अनुचित”
याचिका में सवाल उठाया गया है कि जब दोषी ठहराए गए व्यक्ति चुनाव लड़ सकते हैं, तो अब तक दोषमुक्त नागरिकों को वोट डालने से क्यों रोका जा रहा है?
सुनीता शर्मा ने तर्क दिया,
“अगर कोई व्यक्ति न्यायालय द्वारा अपराधी घोषित नहीं हुआ है, तो उसे मतदान के अधिकार से वंचित करना संविधान की आत्मा के विपरीत है।”
🔹 सुप्रीम कोर्ट का पुराना फैसला और बदलता संदर्भ
याचिका में उल्लेख किया गया कि 1997 के “अनुकुल चंद्र प्रधान बनाम भारत संघ” मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह माना था कि मतदान का अधिकार सांविधिक (statutory) है, मौलिक नहीं।
लेकिन 2023 के “अनूप बरनवाल बनाम भारत संघ” फैसले में संविधान पीठ ने कहा कि मतदान का अधिकार संविधान के भाग-III में निहित मौलिक अधिकारों का हिस्सा है। इसलिए, पुराने दृष्टिकोण पर पुनर्विचार जरूरी है।
🔹 अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य और मानवाधिकार का मुद्दा
याचिका में यह भी कहा गया है कि अधिकांश लोकतांत्रिक देशों में कैदियों के मतदान पर पूर्ण प्रतिबंध नहीं होता। वहां प्रतिबंध केवल गंभीर अपराध या लम्बी सजा वाले मामलों में लगाए जाते हैं।
भारत में करीब 75% कैदी अंडरट्रायल हैं और 80-90% मामलों में बाद में बरी हो जाते हैं, लेकिन इतने वर्षों तक वे मतदान से वंचित रहते हैं — जो “निर्दोषता की धारणा (presumption of innocence)” के सिद्धांत का उल्लंघन है।
🔹 एनसीआरबी आंकड़े और संवैधानिक तर्क
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के 2022 के आंकड़ों के अनुसार, भारत की जेलों में लगभग 77% कैदी विचाराधीन (undertrial) हैं, जबकि आईपीसी अपराधों में सजा की दर मात्र 8.55% है।
याचिका के अनुसार, इतने बड़े हिस्से को मतदान से बाहर रखना संविधान की मूल भावना — “जन प्रतिनिधित्व और समानता” — के खिलाफ है।
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले पर केंद्र सरकार और चुनाव आयोग से चार सप्ताह के भीतर जवाब मांगा है और अगली सुनवाई नवंबर के दूसरे सप्ताह में तय की है।


































































































































































































































































































































































































































