लद्दाख प्रशासन ने मशहूर पर्यावरण कार्यकर्ता और शिक्षा सुधारक सोनम वांगचुक को राष्ट्रीय सुरक्षा कानून (NSA) के तहत हिरासत में लेने का आदेश जारी किया है। प्रशासन का आरोप है कि वांगचुक ने लोगों को आत्मदाह करने के लिए उकसाया और कई मौकों पर “तिब्बत में हुए प्रदर्शनों” की तर्ज़ पर विरोध करने की बात कही।
आरोप और प्रशासन का पक्ष
आधिकारिक आदेश में कहा गया है कि सोनम वांगचुक ने हाल के दिनों में अपने बयानों और सोशल मीडिया संदेशों में स्थानीय लोगों को भड़काया। प्रशासन का आरोप है कि उन्होंने बार-बार यह सुझाव दिया कि यदि सरकार ने उनकी मांगों पर ध्यान नहीं दिया तो लोग आत्मदाह कर सकते हैं। इसे गंभीर खतरे और शांति व्यवस्था भंग करने वाला कृत्य माना गया है।
पृष्ठभूमि और विवाद
सोनम वांगचुक लंबे समय से लद्दाख को संविधान की छठी अनुसूची में शामिल करने और क्षेत्र की पर्यावरणीय सुरक्षा सुनिश्चित करने की मांग कर रहे हैं। उन्होंने हाल ही में कई शांतिपूर्ण धरने और रैलियों का नेतृत्व किया था। इन प्रदर्शनों में भारी संख्या में स्थानीय लोग शामिल हुए।
वांगचुक का कहना है कि लद्दाख की नाजुक पारिस्थितिकी, पहाड़ों और ग्लेशियरों को बड़े पैमाने पर हो रहे औद्योगिक व पर्यावरणीय शोषण से बचाने के लिए कड़े कानूनी प्रावधान जरूरी हैं।
वांगचुक का जवाब
हालांकि सोनम वांगचुक ने अब तक प्रशासन के इन आरोपों पर कोई औपचारिक बयान जारी नहीं किया है, लेकिन उनके समर्थकों का कहना है कि वांगचुक ने हमेशा अहिंसक और शांतिपूर्ण आंदोलन की बात की है। समर्थकों का आरोप है कि प्रशासन उनकी आवाज़ दबाने और स्थानीय आंदोलन को कमजोर करने की कोशिश कर रहा है।
समर्थन और विरोध
इस कार्रवाई के बाद लद्दाख और देशभर के कई हिस्सों में प्रदर्शन शुरू हो गए हैं। विभिन्न सामाजिक संगठनों और पर्यावरण कार्यकर्ताओं ने प्रशासन के कदम की निंदा की है और इसे लोकतांत्रिक अधिकारों पर हमला बताया है। वहीं, प्रशासन का कहना है कि कानून-व्यवस्था बनाए रखना उनकी प्राथमिक जिम्मेदारी है और किसी भी तरह की उकसावे वाली गतिविधि बर्दाश्त नहीं की जाएगी।
राष्ट्रीय स्तर पर गूंज
यह मामला अब राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का विषय बन गया है। राजनीतिक दलों और मानवाधिकार संगठनों ने भी इस कार्रवाई पर चिंता जताई है और केंद्र सरकार से मामले में हस्तक्षेप की मांग की है।
लद्दाख प्रशासन की इस कार्रवाई ने न केवल स्थानीय आंदोलन को नया मोड़ दे दिया है, बल्कि यह सवाल भी खड़ा कर दिया है कि पर्यावरण और संवैधानिक अधिकारों की लड़ाई लड़ने वाले कार्यकर्ताओं के लिए लोकतांत्रिक दायरा कितना सुरक्षित है।


























































































































































































































































































































































































































